सिख धर्म

भारत में सिख पंथ का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए । उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की।

एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े।


सिख धर्म के लोग गुरुनानक देव के अनुयायी हैं। गुरुनानक देव का कालखंड 1469-1539 ई. है। सिख धर्म के लोग मुख्यतया पंजाब में रहते हैं। वे सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास रखते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है। 1538 ई. में गुरु नानक की मृत्यु के बाद सिखों का मुखिया गुरु कहलाने लगा। सिख धर्म का इतिहास बलिदानों का इतिहास है।

सिख धर्म के दस गुरुओं और सिख धर्म का गौरवपूर्ण इतिहास (History) :

सिख धर्म के इतिहास (Brief History of Sikh Dharma) में गुरुओं की लिस्ट (Sikh Guru List) कुछ इस तरह है –

  • गुरुनानक देव (1469-1539)
  • अंगद (1539-1552)
  • अमरदास (1552-1574)
  • रामदास (1574-1581)
  • अर्जुन (1581-1606)
  • हरगोविन्द (1606-1645)
  • हरराय (1645-1661)
  • हरकिशन (1661-1664)
  • तेग बहादुर (1664-1675)
  • गुरु गोविन्द सिंह (1675-1708)

गुरुनानक देव :

गुरु नानक (Guru Nanak) के सिख धर्म के प्रवर्तक थे। 1469 ई. में लाहौर के निकट तलवंडी अथवा आधुनिक ननकाना साहिब में खत्री परिवार में वे उत्पन्न हुए। वे साधु स्वभाव के धर्म-प्रचारक थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दू और इस्लाम धर्म की उन अच्छी बातों के प्रचार में लगाया जो समस्त मानव समाज के लिए कल्याणकारी है।

गुरुनानक ने अत्यधिक तपस्या और अत्यधिक सांसारिक भोगविलास, अहंभाव और आडम्बर, स्वार्थपरता और असत्य बोलने से दूर रहने की शिक्षा दी। उन्होंने सभी को अपने धर्म का उपदेश दिया, फलतः हिन्दू और  मुसलामान, दोनों ही उनके अनुयायी हो गए। उनके स्वचरित पवित्र पद तथा शिक्षाएँ (बानियाँ) सिखों के धर्मग्रन्थ “ग्रन्थ साहिब” में संकलित हैं। नानक देव की मृत्यु 1539 में  हुई।

गुरु अंगद :

गुरु अंगद (Guru Angada) सिखों के दूसरे गुरु हुए। इनको गुरु नानक देव ने ही इस पद  के लिए मनोनीत किया था। नानक इनको अपने शिष्यों में सबसे अधिक मानते थे और अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर उन्होंने अंगद को ही अपना उत्तराधिकारी चुना। गुरु अंगद श्रेष्ठ चरित्रवान व्यक्ति और सिखों के उच्चकोटि के नेता थे जिन्होंने अनुयायियों का 14 वर्ष तक नेतृत्व किया।

सिक्खों के दूसरे गुरु, गुरु अंगद को सिक्ख परम्परा में गुरमुखी लिपि की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है। गुरु अंगद ने अपना पूरा जीवन पंजाब के सामान्य लोगों को गुरमुखी लिपि की शिक्षा देने में बिता दिया। सिक्ख धर्म का प्रमुख धर्म ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब गुरमुखी लिपि में लिखा गया है।

गुरु अमरदास :

गुरु अमरदास (Guru Amardas) सिखों के तीसरे गुरु थे। वे चरित्रवान और सदाचारी थे। उन्होंने सिख धर्म का व्यापक ढंग से प्रचार किया।

गुरु रामदास :

चौथे गुरु रामदास (Guru Ramdas) अत्यंत साधु प्रकृति के व्यक्ति थे। उन्होंने अमृतसर में एक जलाशय से युक्त भू-भाग दान दिया, जिसपर आगे चलकर स्वर्ण मंदिर (golden temple) का निर्माण हुआ। इन्हें ही अमृतसर के संस्थापक माना जाता है। अमृतसर की आधारशिला 1577 ई में रखी गई थी।

गुरु अर्जुन :

सिख धर्म के इतिहास में गुरु अर्जुन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पाँचवें गुरु अर्जुन (Guru Arjuna)ने  सिखों के “आदि ग्रन्थ” नामक धर्म ग्रन्थ का संकलन किया, जिसमें उनके पूर्व के चारों गुरुओं और कुछ हिन्दू और मुसलमान संतों की वाणी संकलित है। उन्होंने खालसा पंथ की आर्थिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान करने के लिए प्रत्येक सिख से धार्मिक चंदा वसूल (धार्मिक कर) करने की प्रथा चलाई। जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन का इस कारण वध कर दिया गया कि गुरु अर्जुन ने जहाँगीर के विद्रोही बेटे शहजादा खुसरो को दयापूर्वक शरण दिया था।

गुरु हरगोविंद :

गुरु अर्जुन के पुत्र गुरु हरगोविंद (Guru Hargobind Sahib ) ने  सिखों का सैनिक संगठन किया। उन्होंने एक छोटी-सी सिखों की सेना एकत्र की। गुरु अर्जुन ने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह करके एक युद्ध में शाही सेना को हरा भी दिया। किन्तु बाद में उनको कश्मीर के पर्वतीय प्रदेश में शरण लेनी पड़ी।

गुरु हरराय और गुरु किशन :

गुरु हरराय (Guru Har Rai) और गुरु किशन (Guru Kishan) के काल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी। उन्होंने गुरु अर्जुन द्वारा प्रचलित धार्मिक चंदे की प्रथा और उनके पुत्र हर गोविन्द की सैनिक-संगठन की नीति का अनुसरण करके खालसा पंथ को और भी शक्तिशाली बनाया।

तेग बहादुर :

नवें गुरु तेग बहादुर (Guru Teg Bahadurको औरंगजेब की दुष्ट प्रकृति का सामना करना पड़ा।  उसने गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाकर उनके सामने प्रस्ताव रखा कि या तो इस्लाम धर्म स्वीकार करो अथवा प्राण देने को तैयार हो जाओ। बाद में उनका सिर दुष्ट औरंगजेब ने काट डाला। उनकी शहादत का समस्त सिख सम्प्रदाय, उनके पुत्र और अगले गुरु गोविन्द सिंह पर गंभीर प्रभाव पड़ा।

गुरु गोविन्द सिंह :

गुरु गोविन्द सिंह (Guru Gobind Singh) ने भली-भांति विचार करके शांतिप्रिय सिख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दिया जो दृढ़तापूर्वक मुसलामानों के अतिक्रमण और अत्याचारों का सामना कर सके। साथ ही उन्होंने सिखों में ऐसी अनुशासन की भावना भरी कि वे लड़ाकू शक्ति बन गए। उन्होंने अपने पंथ का नाम खालसा (पवित्र) रखा। साथ ही समस्त सिख समुदाय को एकता-सूत्र में बाँध कर के विचार से सिखों के केश, कच्छ, कड़ा, कृपाण और कंघा – पाँच वस्तुओं को आवश्यक रूप में धारण करने का आदेश दिया। उन्होंने पाहुल प्रथा का शुभारम्भ किया जिसके अनुसार सभी सिख समूह में जात-बंधन तोड़ने के उद्देश्य से एक ही कटोरे में प्रसाद ग्रहण करते थे।

गुरु गोविन्द सिंह ने स्थानीय मुग़ल हाकिमों से कई युद्ध किये, जिनमें उनके दो बालक पुत्र मारे भी गए। पर इससे वे हतोत्साहित नहीं हुए। अपनी मृत्यु तक सिखों का संगठन करते रहे। 1708 ई. में एक अफगान ने उनकी हत्या कर दी।

आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ भी संकलित हुईं और यह संकलन “गुरु ग्रन्थ साहब” का परिशिष्ट (appendix) बना।  समस्त सिख समुदाय उनका इतना आदर करता था कि उनकी मृत्यु के बाद गुरु पद ही समाप्त कर दिया गया। वैसे उनके मृत्यु के बाद ही बंदा वीर ने सिखों का नेतृत्व भार संभाल लिया। वीर वंदा के नेतृत्व में 1708 ई. से लेकर 1716 ई. तक सिख निरंतर मुगलों से लोहा लेते रहे, पर 1716 ई. में बंदा वीर बंदी बना लिया गया और बादशाह फर्रुखशियर (1713-1719ई.) की आज्ञा से हाथियों से रौंदवादकर उसकी निर्मम हत्या कर दी गई।


आदि ग्रन्थ :

सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि – ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ 15 संतों एवं 14 रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया।

  • पाँच गुरु :- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव।
  • 15 संत :- शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास। (उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया )
  • 14 रचनाकार :- हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप।

यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया। उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है।

उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह (दसवें गुरु) ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया (गुरु ग्रन्थ साहब)। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है।

गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत 400 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। लेकिन अपने देहावसान के पूर्व गुरु गोविन्द सिंह ने सभी सिखों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए गुरु ग्रन्थ साहब और उनके सांसारिक दिशा-निर्देशन के लिए समूचे खालसा पंथ को ‘गुरु पद’ पर आसीन कर दिया। उस समय आदिग्रन्थ गुरु साहब के रूप में स्वीकार किया जाने लगा।


सिंह और कौर : (sikh dharm mein singh aur kaur)

एक धर्म में एक ही जैसे सरनेम का होना देखने को नहीं मिलता। लेकिन जातियों की इसी अवधारणा को तोड़ने वाला एक धर्म जरूर है, वह है ‘सिख पंथ’। सिख धर्म में भले ही सरनेम मौजूद हैं, लेकिन इन सरनेम से पहले और असली नाम के ठीक बाद ‘सिंह’ एवं ‘कौर’ को लगाकर सभी के नाम एक जैसे कर दिए जाते हैं।

सन् 1699, सिख धर्म के दसवें नानक ‘गुरू गोबिंद सिंह जी’ ने वैसाखी का पर्व मनाया। उन्होंने पवित्र अमृत अपने पांच प्यारों को छकाया और अंत में स्वयं उनके हाथों से भी पिया और ‘वाहो-वाहो गोबिंद सिंह आपे गुरु चेला’ की मिसाल दी। अर्थात् गुरु एक समय पर गुरु भी है और जरूरत पड़े तो वही चेला बन लोगों को सीखते रहने की सीख भी देता है।

इसी दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह ऐलान किया था कि आज के बाद सिखों को एक नई पहचान दी जाएगी। जातिवाद और ऊंच-नीच को खत्म करते हुए गुरु जी ने दो शब्दों का ऐलान किया – सिंह और कौर।

उन्होंने सिख भाइयों को ‘सिंह’ शब्द से नवाजा और महिलाओं को ‘कौर’ की उपाधि दी। सिंह यानि शेर, जो किसी से नहीं डरता। उसे केवल ईश्वर का भय है और वह हर पल सच्चाई के मार्ग पर चलता है।

कौर से उनका तात्पर्य था ‘राजकुमारियां’, सिख महिलाओं को इस नाम की उपाधि देने से गुरु जी ने पुरुष एवं महिला के बीच के अंतर को खत्म किया। उन्हें भी पुरुषों जितना ही सम्मान हासिल हो, इसलिए गुरु जी ने उन्हें अपनी राजकुमारियां यानि ‘कौर’ कहकर पुकारा।

सन् 1699 का यह वह समय था जब जातिवाद अपने चरम पर था। लोग एक-दूसरे को जाति और उनके सरनेम से जानते और सम्मान देते थे। इसी अंतर को खत्म करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह कदम उठाया और सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी के ‘एकता’ के उद्देश्य के पक्ष में एक अहम फैसला लिया।


1 Comment

  1. Osm information quite useful for me

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