अफीम युद्ध

प्रथम अफीम युद्ध ब्रिटेन द्वारा चीन पर किया गया सर्वप्रथम आक्रमणकारी युद्ध था। इस युद्ध की शुरुआत 1840 ई. में हुई और यह दो साल (1840 से 1842 ई.) तक चला। यह युद्ध चीन के ‘छिंग राजवंश’ और और ब्रिटेन के बीच चल रहे गहरे विवादों के अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचने के कारण हुआ। ब्रिटेन ने बड़ी मात्रा में अफीम का निर्यात चीन को किया था, जिससे वहाँ के निवासियों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा था। युद्ध में ब्रिटेन की सेना के दबाब के आगे छिंग राजवंश की सरकार को ब्रिटेन से ‘नानचिंग सन्धि’ करनी पड़ी, जिसके फलस्वरूप चीन एक अर्ध उपनिवेशिक देश बन गया।

आइये जानते हैं, ब्रिटेन और चीन के बीच हुए इस युद्ध के बारे में।

अफीम युद्ध की कहानी (The Story of Opium War):


ये जून 1840 की बात है जब ब्रितानी युद्धपोतों के एक बेड़े ने चीन की पर्ल रीवर डेल्टा में जाकर युद्ध छेड़ दिया था। चीन के तटीय इलाकों की सुरक्षा व्यवस्था कमज़ोर थी। इस ब्रितानी हमले के सामने चीन ज़्यादा देर नहीं टिक सका और उसने घुटने टेक दिए।


ये पहला अफ़ीम युद्ध था जिसमें हज़ारों लोग मारे गए थे और वो भी मुक्त व्यापार के नाम पर। चीन में अफ़ीम का कारोबार एक फायदे का धंधा था लेकिन ये अवैध भी था। स्कॉटलैंड के दो लोग (जेम्स मैथेसन और विलियम जार्डाइन) इस कारोबार से जुड़े हुए थे और युद्ध की शुरुआत में इन दोनों ने बड़ी भूमिका निभाई थी।

विलियम जार्डाइन पेशे से एक डॉक्टर थे और कारोबारी भी।


चाय से अफ़ीम :

चीन के एक वेश्यालय में पहली मुलाकात के बाद जेम्स मैथेसन नाम के एक और कारोबारी विलियम के पार्टनर बन गए। 1832 में दोनों ने मिलकर जार्डाइन, मैथेसन एंड कंपनी बनाई जिसका मुख्यालय दक्षिणी चीन का कैंटोन शहर था। कैंटोन को अब चीन के ग्वांझो के नाम से जाना जाता है।

चीन के केवल इसी इलाके में विदेशियों को कारोबार की इजाजत थी। वे चाय के बदले अफ़ीम का कारोबार करते थे। ब्रिटेन में चाय के लिए गज़ब की दीवानगी थी। 18वीं सदी के आखिर तक ब्रिटेन कैंटोन से 60 लाख पाउंड की चाय हर साल मंगाने लगा था।

चांदी में बिजनेस :

लेकिन जल्द ही ब्रिटेन को इस कारोबार में दिक्कत पेश आने लगी क्योंकि चीन की शर्त ये थी कि वो चाय की कीमत के तौर पर केवल चांदी लेगा। ब्रिटेन ने चाय की कीमत के तौर पर नक्काशीदार बर्तन, वैज्ञानिक उपकरण और ऊनी कपड़े जैसी चीज़ें देने की पेशकश की। लेकिन चीन ने इसे लेने से इनकार कर दिया।

चीन के तत्कालीन सम्राट क़ियान लोंग ने किंग जॉर्ज तृतीय को एक पत्र में लिखा, “हमारे पास वो सारी चीजें हैं और बेहतर गुणवत्ता वाली। मैं ऐसी बेकार चीज़ों का कोई मूल्य नहीं समझता और आपके देश में बनी चीज़ों का हमारे यहां कोई इस्तेमाल नहीं है।”


अफीम की तस्करी (Smuggling of Opium) :

पचास सालों के दौर में ब्रिटेन ने चीन को 270 लाख पाउंड की कीमत के बराबर चांदी का भुगतान किया और इसके बदले उन्हें केवल 90 लाख पाउंड के सामान उन्हें बेच सका। ब्रिटेन के लिए चीन से आने वाली ये चाय धीरे-धीरे महंगी होने लगी और उन्हें वहां पैसा बनाने का कोई दूसरा रास्ता भी दिखाई नहीं देने लगा।

कम से कम क़ानूनी तौर पर तो ऐसा ही था। लेकिन भारत में मौजूद ब्रितानी कारोबारियों ने इसे एक मौके के तौर पर देखा। बंगाल के इलाके में अफ़ीम की पैदावार बड़े पैमाने पर होती थी। हालांकि चीन में अफ़ीम पर प्रतिबंध था बावजूद इसके कि चीनी चिकित्सा पद्धति में अफ़ीम का इस्तेमाल हज़ारों सालों से होता आ रहा था।

चीन में प्रतिबंध :

लेकिन पंद्रहवीं सदी के आते-आते चीनी लोग इसे तंबाकू में मिलाकर नशे के लिए इसका इस्तेमाल करने लगे थे। जल्द ही चीनी समाज का एक बड़े हिस्से को अफ़ीम की लत लग गई और वे इसकी गिरफ्त में आ गए। इसका सामाजिक दुष्प्रभाव भी सामने आने लगा। अफ़ीम की लत का शिकार लोग इसके लिए अपनी कीमती चीज़ें बेचने लगे।

1729 में चीन के सम्राट योंगझेंग ने अफ़ीम की खरीद-बिक्री और नशे के तौर पर इसके इस्तेमाल पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी। लेकिन सौ साल गुज़र जाने के बाद चीनियों की अफीम के प्रति दीवानगी ज़रा सी भी कम नहीं हुई थी और अंग्रेजों ने उनकी इस लत का शोषण करना शुरू कर दिया था।

भारत का पूर्वी इलाका :

साल 1836 आते-आते भारत से हर साल अफ़ीम की 30 हज़ार पेटियां चीन पहुंचने लगी थीं। जार्डाइन, मैथेसन एंड कंपनी का इस कारोबार के एक चौथाई हिस्से पर कब्जा था। चीन में अफ़ीम पर पाबंदी के सरकारी आदेश को तोड़कर ब्रिटेन ने चीन से अपनी आमदनी बढ़ाने का तरीका खोज निकाला था।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ हॉन्ग-कॉन्ग के प्रोफेसर जैन कैरोल के मुताबिक, “ब्रितानियों को ये एहसास हुआ कि भारत के पूर्वी इलाके में अफीम की बड़ी पैदावार होती है और चीन में इसकी तस्करी से काफी मुनाफ़ा कमाया जा सकता है।” और चीन के कैंटोन शहर की तटीय स्थिति से ये ब्रिटेन के लिए आसान हो गया था।


चीन की कार्रवाई :

18वीं सदी के अंत में ब्रिटेन ने चीन को भारी मात्रा में अफीम का निर्यात किया। इस कारण उसे ढेर सारी चांदी का लाभ हुआ। प्रोफेसर जैन कैरोल ने बताया, “वे छोटी नावों में अफ़ीम रखकर उसे आसानी से कैंटोन के तट पर पहुंचा देते थे। किनारे पर उनकी मदद के लिए वहां हमेशा कोई मौजूद होता था। आर्थिक लिहाज से उसे इसका खूब फायदा हो रहा था।”

लेकिन ब्रिटेन का इस तरह से क़ानून तोड़ना ज़्यादा समय तक छुपा नहीं रहा। 1839 में चीन के सम्राट डाओग्वांग ने नशीले पदार्थों के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी। पश्चिमी कारोबारियों के ख़िलाफ़ छापेमारी का अभियान शुरू करने का आदेश दिया गया।

अफीम सेवन से बहुत से चीनियों की सेहत पर बुरा असर पड़ा और राजकोष खाली होने लगा। इससे छिंग राजवंश की सरकार की आंखें खुलीं और सम्राट ने सन 1838 के अंत में ‘लिन चे-श्यू’ को अफीम के व्यापार पर पाबंदी लगाने के लिए विशेष दूत नियुक्त कर दिया। अगले साल मार्च में लिन चे-श्यू ने दक्षिण चीन के क्वांगचो शहर जाकर समुद्री रक्षा-व्यवस्था कड़ी की और अफीम के व्यापारियों की गिरफ्तारी कराई। 3 जून से 25 जून के बीच जब्त किए गए 11 लाख, 80 हज़ार किलो अफीम को ‘हुमन’ समुद्रतट पर सार्वजनिक रूप से नष्ट कर दिया गया।


ब्रितानी सरकार :

कैंटोन के 13 फैक्ट्रीज़ इलाके में स्थित गोदामों पर रेड डाले गए और चीनी सैनिकों ने इसे सील कर दिया। विदेशी कारोबारियों को सरेंडर करने के लिए चीनियों ने मजबूर कर दिया। चीन की इस कार्रवाई में 20 लाख पाउंड की कीमत के सामान ज़ब्त किए गए। इसमें अफ़ीम की 20 हजार पेटियां और 40 हज़ार ओपियम पाइप्स भी थे।

इस ज़ब्ती के बाद पेरशान विलियम जार्डाइन कैंटोन से लंदन के लिए रवाना हो गए जहां उन्होंने ब्रिटेन के विदेश मंत्री लॉर्ड पाल्मर्स्टॉन से चीन पर जवाबी कार्रवाई के लिए पैरवी की। अंग्रेज़ों को भारत से मिलने वाले राजस्व में अफ़ीम की बड़ी भूमिका थी, इसलिए ब्रितानी सरकार को चीन में नौसेना भेजने के फैसले में ज़्यादा वक्त नहीं लिया।

इससे पहले अप्रैल में ही ब्रिटेन ने अमरीका और फ़्राँस के समर्थन पर व्यपारियों की रक्षा के बहाने ‘कप ऑफ़ गुट होप ले’ नामक नौ समुद्री पोतों का एक बेड़ा चीन की ओर रवाना करवा दिया। 28 जून को ब्रिटिश नौसेना ने चू-च्यांग या पर्ल नदी के मुहाने पर नाकेबंदी कर दी। इस प्रकार अफीम युद्ध की शुरूआत हुई।

जुलाई में ब्रिटिश नौसेना ने उत्तर की ओर बढते हुए पेइचिंग के नजदीक ताकू बन्दरगाह पर कब्जा करके छिंग राजवंश की सरकार पर दबाव डालने की कोशिश की। इस पर सम्राट ने लिन च-श्यु को पद से बर्खास्त कर दिया और ब्रिटेन के साथ शांति समझौता सपन्न करने के लिए अपना दूसरा अधिकारी क्वांगचो शहर भेजा। 1841 ई. की जनवरी में ब्रिटेन ने क्वांगचो के पास चीनी सेना के दो ठिकानों पर कब्ज़ा कर लिया। 27 जनवरी को सम्राट ने ब्रिटेन के ख़िलाफ़ युद्ध घोषित कर दिया।

चीन की हार :

दूसरी तरफ, जून, 1840 में ब्रिटेन ने 16 युद्धपोत और 27 जहाज चीन के पर्ल रीवर डेल्टा की तरफ रवाना कर दिए थे। इन जहाज़ों पर 4000 लोग सवार थे। इस बेड़े में लोहे से बना युद्धपोत नेमेसिस भी था जिसपर दो मील तक दागे जा सकने वाले रॉकेट लॉन्चर तैनात थे।

इस हमले के लिए हालांकि चीनी तैयार थे लेकिन ब्रितानी ताकत का मुकाबला करने की उनमें काबिलियत नहीं थी। उनके तोप ब्रिटेन के सामने चार से पांच घंटे तक ही टिक सकते थे। अगले दो सालों तक ब्रितानी नौसेना चीन के तटीय इलाकों से होती हुई शंघाई की तरफ बढ़ने लगी।


गैरबराबरी की संधि (नानचिंग सन्धि – Unequal treaty):

अधिकांश चीनी सैनिक अफ़ीम की लत का शिकार थे और उन्हें हर जगह हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में 20 से 25 हज़ार चीनी हताहत हुए जबकि ब्रिटेन ने 69 सैनिक गंवाएं। इस युद्ध के बाद चीन पूरी तरह से हिल गया था।

अगस्त 1842 में एचएमएस कॉर्नवालिस पर नानकिंग (नानचिंग) के पास चीनियों से अंग्रेज़ों का समझौता हुआ जिसे दुनिया ‘अनइक्वल ट्रीटी(Unequal treaty)’ या ‘गैरबराबरी की संधि(Non-equal treaty)’ के नाम से जानती है।

चीन को पांच बंदरगाह विदेश व्यापार के लिए खोलना पड़ा और अफ़ीम के कारोबार से हुए नुकसान और युद्ध के हर्जाने के तौर पर उसने ब्रिटेन को दो करोड़ 10 लाख सिल्वर डॉलर अदा किए।

ब्रिटेन को इस संधि से हॉन्गकॉन्ग पर कब्जा मिला जिसका इस्तेमाल चीन में अफ़ीम का कारोबार बढ़ाने के लिए किया जाना था।


दूसरा अफीम युद्ध :

अक्तूबर 1856 में चीनी नौसेना ने ह्वांगफू बन्दरगार के पास रूके या-लो नामक एक चीनी तस्कर जहाज की जांचकर उस पर सावर 2 समुद्री डाकुओं और 10 चीनी नाविकों को पकड़ा। इस जहाज का मालिक एक चीनी था। तस्करी की सुविधा के लिए उस ने हांगकांग के ब्रितानी अधिकारियों से एक वर्षीय लाइसेंस प्राप्त किया हुआ था।

चीनी नौसेना ने इसलिए इस जहाज पर सवार 2 समुद्री डाकुओं और 10 नाविकों को गिरफ्तार किया, क्योंकि उस की लाइसेंस की प्रभावी अवधि कब की पूरी हो गयी थी। यह चीन का एक अंदरूनी मामला था, जिस का ब्रिटेन से कोई वास्ता नहीं था। पर क्वांगचो शहर स्थित ब्रितानी कोंस्लर ने कहा कि “या-लो” जहाज ब्रिटेन का है और मनगढंत रूप से चीनी नौसेना पर आरोप लगाया कि उस ने जहाज के ऊपर फहराए ब्रिटेन के राष्ट्रीय ध्वज को नीचे खींच लिया था।

इस बहाने से लगभग 10 दिनों के बाद ब्रिटिश सेना ने क्वांगचो पर छापा मारकर दूसरा अफीम युद्ध छेड दिया। अपनी ताकतवर फौजी शक्ति के चलते ब्रिटेन ने जल्द ही क्वांगचो पर कब्जा कर लिया। पर क्वांगचोवासी बहुत बहादुर थे। करीब दो महीनों के बाद उन्होंने ब्रितानी सेना के ठिकानों को जलाकर नष्ट कर दिया और कब्जावरों को शहर से भगा दिया।


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2 Comments

  1. all about the “Opium War” !! this is what I wanted from an article. Have said like a story.
    maja aa gaya boos. ” Thumbs up”

  2. जर्मन का एकीकरण ।

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