डॉ. कलाम

आज अगर डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम हमारे बीच होते तो पूरा देश उन्हें जन्मदिन (15 अक्टुम्बर) पर ढेरों शुभकामनाएं दे रहा होता। परन्तु नियति को कुछ ओर ही मंजूर था। 27 जुलाई 2015 को उन्होंने हमेशा के लिए हमसे विदा ले ली। परन्तु राष्ट्र निर्माण को जीवन का उद्देश्य और धर्म मानने वाले ‘कलाम’ सरीखे व्यक्तित्व कभी विदा नहीं होते। डॉ. कलाम अपने प्रेरणादायी और ओजस्वी विचारों के साथ हमारे बीच सदैव मौजूद रहेंगे। उन्होंने वैज्ञानिक, दूरदृष्टा, मार्गदर्शक और सबसे बढ़कर ‘राष्ट्र गुरू’ के रूप में देश को जो कुछ दिया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

डॉ. कलाम ने भारत को विकसित देशों की कतार में लाने का सपना देखा और उसके लिए एक असरदार रणनीति भी तैयार की। उनकी धवल केशराशि और उन्मुक्त हँसी वैश्विक वैज्ञानिक जगत में भारत की पहचान बन गयी थी। शिक्षक के रूप में उनके योगदान को मान्यता देते हुए सयुंक्त राष्ट्र ने वर्ष 2010 में क के जन्मदिन को ‘अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत की। देश के विकास को लेकर उनके पास एक स्पष्ट और समग्र दृष्टि थी, जिसका ताना-बाना विज्ञान व प्रौद्योगिकी के गिर्द बुना गया था। उनका मानना था कि देश के युवा अपनी नयी सोच, जोश और ऊर्जा से देश के भविष्य में सुनहरा रंग भर सकते हैं। इसलिए वे अपनी अंतिम सांस तक युवाओं को राष्ट्र के प्रति समर्पण के लिए उत्साहित व प्रेरित करते रहे। आज इस लेख में आपके लिए प्रस्तुत हैं उनके विचारों की एक संक्षिप्त झांकी।


दक्षिण भारत में सागर तट पर बसे मनोहर रामेश्वरम के छोटे-से पंचायत स्कूल की बात है। पांचवीं कक्षा में मास्टर शिवासुब्रमण्यम अय्यर बड़े मनोयोग से बच्चों को विज्ञान पढ़ा रहे थे। ब्लैक बोर्ड पर चित्र बनाकर पक्षियों की उड़ान की बारीकियां समझा रहे थे। पंख कैसे फड़फड़ाते हैं, दुम क्या काम करती है, उड़ान में पक्षी अपना रास्ता कैसे बदलते हैं, वगैरह-वगैरह। ज्यादातर बच्चों को उड़ान का विज्ञान समझ में नहीं आया। लेकिन केवल एक बच्चे ने खड़े होकर कहा, ‘मास्टर जी, समझ में नहीं आया।’ तो मास्टर जी ने अगले दिन सभी बच्चों को सागर किनारे आने के लिए कहा। वहीं क्लास लगी। उन्होंने उड़ते पक्षियों को दिखाकर विज्ञान समझाने की कोशिश की। रोचक अंदाज में बताया। बच्चों के सवालों के जवाब भी दिए। बात सभी की समझ में आ गयी। उस बच्चे की भी, जिसने कहा था की समझ में नहीं आया। उस समय मास्टर जी को या 10 साल के उस बच्चे को खुद भी जरा-सा भी अहसास नहीं था कि एक दिन वह भारत का राष्ट्रपति बनेगा। और वह भी बिना किसी राजनीतिक पृष्टभूमि के! हम बात कर रहे हैं देश के ग्यारहवें राष्ट्रपति अबुल पाकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम की, जिनका जन्म 15 अक्टुम्बर, 1931 को रामेश्वरम में हुआ था।

कई दशकों बाद अपने गुरु को याद करते हुए कलाम साहब से बताया कि उन्होंने मेरे मन-मस्तिष्क में उड़ान को लेकर एक अनोखी जिज्ञासा और कौतूहल भर दिया। उन्होंने सिखाया कि सपनों में उड़ान कैसे भरी जाती है। डॉ. कलाम ने उड़ान के साथ अपने वैज्ञानिक सफर की शुरुआत और कामयाबी का पूरा श्रेय अपने गुरू मास्टर अय्यर को दिया। 

Dr. A.P.J. Abdul Kalam
डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

डॉ. कलाम अपने स्कूल और कॉलेज के ज़माने के शिक्षकों इयादुराई सोलोमन, रेवरेंड फादर लैडिसेलस चिन्नादुरई, इसाक वेदामुथु और के. वी. आर. पंडालाई को अपना ‘हीरो’ मानते थे। केवल तकनीकी योग्यता ही नहीं बल्कि अपने विचारों और संस्कारों के लिए भी वे अक्सर अपने शिक्षकों का आभार प्रकट करते थे।

एक बार डॉ. कलाम से पूछा गया कि स्कूल में छात्रों की पिटाई के बारे में आपकी क्या राय है? तो उन्होंने अपने गणित के अध्यापक रामाकृष्णन को याद करते हुए बताया कि वे छड़ी से पिटाई करते थे, लेकिन इससे मुझे खुद को सुधारने का अवसर मिला। मेरे 100 में 100 नंबर आने लगे। गणित में हाशिल की गयी इस महारत ने उन्हें एक भौतिक वैज्ञानिक के रूप में कामयाबी हासिल करने में बहुत मदद की। डॉ. कलाम जीवन भर भारतीय समाज में गुरु-शिष्य की परम्परा को बढ़ावा देने पर जोर देते रहे। उनका मानना था कि सीखना और सिखाना सदैव चलते रहना चाहिए, उम्र या पड़ाव चाहे जो भी हो।

अपने वैज्ञानिक जीवन के सफ़र में उन्होंने अपना पहला गुरू प्रसिद्ध अन्तरिक्ष वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई को माना और समय-समय पर उनके मार्गदर्शन के लिए आभार प्रकट करते रहे। उनकी संस्मरण पुस्तक ‘माय जर्नी’ का पूरा एक अघ्याय डॉ. साराभाई को समर्पित है।

वे लिखते हैं कि डॉ. साराभाई ने उन्हें न केवल आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया बल्कि उन पर यह विश्वास भी किया कि वह भारत को विज्ञान तथा रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बढ़ा सकते हैं। कहने की जरुरत नहीं है कि डॉ. साराभाई का विश्वास 100 फीसदी सच साबित हुआ। जब डॉ. सतीश धवन अंतरिक्ष विभाग के अध्यक्ष बने तो उन्होंने भी कलाम को पूरा प्रोत्साहन और मार्गदर्शन दिया। देश में नाभिक सामग्री के जनक कहे जाने वाले डॉ. ब्रह्म प्रकाश से भी डॉ. कलाम ने बहुत कुछ सीखा। डॉ. कलाम इसे अपना सौभाग्ये मानते हैं कि उन्हें इन तीन दिग्गज वैज्ञानिकों के साथ काम करने और सीखने का अवसर मिला।

डॉ. कलाम की खासियत रही कि उन्होंने कभी भी किसी छोटी-बड़ी कामयाबी के लिए अपनी काबिलियत या मेहनत को जिम्मेदार नहीं माना बल्कि हमेशा यही कहा कि मुझे एक अच्छे नेतृत्व और टीम के साथ काम करने का अवसर मिला जिससे सफलता हासिल हुई। उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन के चार पड़ावों को अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास और सफलता के लिए जिम्मेदार माना तथा इन्हें ही वे अपने जीवन में आनंद और संतोष का स्त्रोत भी मानते थे। वे कहते थे कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, इसरो में बिताए अपने व्यावसायिक जीवन के प्रारंभिक 20 वर्षों ने मुझे एक वैज्ञानिक के रूप में पहचान देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

यहाँ मुझे भारत के पहले उपग्रह प्रक्षेपण यान, PSLV-3 के परियोजना निदेशक के रूप में काम करने का मौका मिला, जिससे मैने बहुत कुछ सीखा। इस यान ने रोहिणी नामक उपग्रह को 18 जुलाई,1980 को धरती की एक निचली कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया। यान और उपग्रह, दोनों को ही देश में विकसित किया गया था। इस सफलता के साथ भारत उस विशिष्ट अंतरिक्ष क्लब में दाखिल हो गया जिसमें अमेरिका, तत्कालीन सोवियत यूनियन, फ्रांस, जापान और चीन शामिल थे। इसके साथ ही इस सफलता ने डॉ. कलाम को एक कुशल वैज्ञानिक, प्रबंधक तथा प्रशासक के रूप में भी स्थापित किया। इसी सफलता का परिणाम था कि सन 1982 में डॉ. कलाम को रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ), की हैदराबाद स्थित रक्षा अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशाला, डीआरडीएल के निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गई। यह प्रोगशाला मुख्य रूप से भारत के स्वदेशी मिसाइल कार्यक्रम के लिए समर्पित थी। डॉ. कलाम का कहना था कि मिसाइल कार्येक्रम से जुड़ना उनके व्यावसायिक जीवन का दूसरा पड़ाव था जिससे उन्हें बहुत कुछ जानने-समझने और आगे बढ़ने का अवसर मिला।


स्वदेशी मिसाइल कार्यक्रम की असाधारण सफलता के कारण भारत रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ। इसके साथ ही डॉ. कलाम पूरे विश्व में भारत के ‘मिसाइल मैन’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए (विस्तृर जानकारी ले लिए बॉक्स देखें)।

कैसे बने ‘मिसाइल मैन’ :-

डॉ. कलाम को सन 1982 में डीआरडीओ की हैदराबाद स्थित रक्षा अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशाला, डीआरडीएल के निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गई। यह मुख्य रूप से मिसाइल बनाने वाली प्रयोगशाला थी और यहाँ ‘डेविल’ नामक सतह-से-सतह पर मार करने वाली मिसाइल बनाने पर काम चल रहा था। लेकिन यह काम ढुलमुल तरीके से हो रहा था, सरकार खुश न थी और, बात यह भी चल रही थी कि डीआरडीएल को बंद कर दिया जाये। प्रयोगशाला के माहौल में निराशा भरी हुई थी। सरकार को डॉ. कलाम से उम्मीद थी कि वे इस माहौल को बदलकर प्रयोगशाला को जीवंत बना सकते हैं।
उनसे कहा गया कि आप भारत को मिसाइल राष्ट्र बनाने के लिए खाका प्रस्तुत करें। दरअसल उस समय के वैश्विक सामरिक परिवेश में मिसाइल का अहम् स्थान था और हमारे पास मिसाइल न होने से भारत को रक्षा के मामले में पिछड़ा हुआ माना जा रहा था। डॉ. कलाम ने अपने साथियों के साथ मिलकर चरणबद्ध रूप में पांच मिसाइलों के विकास का खाका तैयार किया और उसे लेकर तत्कालीन रक्षा मंत्री आर वेंकटरमन के पास पहुँच गये।
उनके साथ रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार और डीआरडीओ के महानिदेशक डॉ. वी. एस. अरूणाचलम भी मौजूद थे। रक्षा मंत्री ने खाका देखते ही वापस कर दिया। उन्होंने कहा कि आप एक बड़ा व्यापक कार्यक्रम तैयार करें जिसके अंतर्गत पांचों मिसाइल बनाने पर एक साथ काम हो सके।
दरअसल वह भारत को इस काम में तेजी से आगे बढ़ाना चाहते थे और इसके लिए भारी बजट देने को भी तैयार थे। नये सिरे से बजट बनाने का समय नहीं था, बताया जाता है कि अरूणाचलम और कलाम ने उसी समय सभी संख्याओं के आगे कई शुन्य जोड़कर नया और भारी-भरकम बजट तैयार कर दिया। कहने की जरूरत नहीं कि इस बजट को मंजूरी मिल गई।

डॉ. कलाम ने हैदराबाद लौटकर जब यह खबर डीआरडीएल में सुनाई तो सभी साथियों के मन में जोश आ गया। इस सुनहरे अवसर का फायदा उठाकर कुछ कर कर दिखाने की होड़ लग गयी। इस तरह सं 1983 में भारत में समेकित निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम, आईजीएमडीपी (IGMDP: Integrated Guided Missile Development Program) की शुरुआत हुई।
प्रारम्भ में केवल चार मिसाइल तैयार करने की योजना थी। सतह-से-सतह पर मार करने वाली ‘पृथ्वी’ सतह-से-हवा में मार करने के लिए दो मिसाइल ‘आकाश’ और ‘त्रिशूल’ तथा एंटी टैंक मिसाइल ‘नाग’। डॉ. कलाम को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने वाली ‘अग्नि’ मिसाइल इसमें शामिल नहीं थी। जब कम दूरी वाली पृथ्वी मिसाइल तैयार कर ली गई तो डॉ. कलाम ने महसूस किया कि इसे लम्बी दूरी वाली मिसाइल के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता। तब इसे भी आईजीएमडीपी में शामिल किया गया और डॉ. कलाम ने खुद इसे नाम दिया ‘अग्नि’। डॉ. कलाम अपने तन-मन और जोश के साथ मिसाइलों के विकास कार्येक्रम में जुट गये। उन्होंने खुद को टीम का नेता नहीं बल्कि हिस्सा मानते हुए काम किया। इसी कारण वह निदेशक के बंगले में रहने नहीं गये, बल्कि एक बैडरूम-स्टडी वाले डिफेन्स सुइट में ही रहते रहे।
मिसाइलों के विकास के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकी और सामग्री इसी प्रयोगशाला में तैयार की गयी, विदेशों से नहीं मंगायी गयी, और शायद कोई विकसित देश देता भी नहीं। सभी मिसाइलें अपने निर्धारित समय के अनुसार विकसित कर लांच की गई। सन 1985 में ‘त्रिशूल’, 1988 में ‘पृथ्वी’, और 1989 में ‘अग्नि’ और 1990 में अन्य मिसाइल देश का गौरव बढ़ाने लगीं। इस उपलब्धि ने भारत को रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका अदा की और डॉ. कलाम देश के ‘मिसाइल मैन’ बन गये।


डीआरडीओ ने परमाणु ऊर्जा विभाग के साथ साझेदारी और सहयोग करके मई 1998 में पोखरण, राजस्थान में सफल परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया जिसमें डॉ. कलाम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस अवसर को डॉ. कलाम अपने जीवन का तीसरा सबसे महत्वपूर्ण और आनंददायक पड़ाव मानते थे। उन्होंने कहा कि अपनी टीम के साथ परमाणु परीक्षणों में शामिल होकर मुझे बहुत आनंद आया और हमने दुनिया को दिखा दिया कि भारत यह भी कर सकता है। अब हम विकासशील देश नहीं थे, बल्कि विकसित देशों के साथ खड़े थे। एक भारतीय के रूप में इस उपलब्धि से मुझे बहुत गर्व हुआ।

 डॉ. कलाम के जीवन में आनंद और संतोष का चौथा स्रोत कोई वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं, बल्कि विज्ञान के माध्यम से मानव जीवन की पीड़ा मिटाने की अनुभूति थी। डॉ. कलाम के अनुसार एक बार हैदराबाद की उनकी प्रयोशाला में निजाम इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज के ऑर्थोपेडिक सर्जन आये। उन्होंने अग्नि मिसाइल के लिए तैयार किया गया एक बहुत हल्का पदार्थ देखा और बोले की आप कृपया मेरे अस्पताल आयें, में आपको कुछ रोगियों से मिलवाना चाहता हूँ। वहां मैंने कई विकलांग लड़के-लड़कियों को देखा जो धातु से बने तीन किलोग्राम भारी कैलिपर का सहारा लेकर चल रहे थे। सर्जन ने मुझसे कहा कि कृपया मेरे इन नन्हे रोगियों की पीड़ा दूर कर दीजिए। मैंने अपनी टीम के साथ तीन हफ्ते काम किया और मिसाइल के लिए तैयार हलके पदार्थ से केवल 300 ग्राम वजन के कैलिपर तैयार कर दिये। बच्चों को अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ। हल्के कैलिपर की मदद से उनका चलना-फिरना, दौड़ना आसान हो गया। यह देखकर बच्चों के माता-पिता की आँखों में आंसू आ गए। इस घटना और इससे मिले संतोष को डॉ. कलाम ने अपने जीवन का चौथा सबसे आनंददायक अनुभव माना।

दरअसल डॉ. कलाम केवल एक वैज्ञानिक ही नहीं थे वे मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक चेतनाओं से भरपूर एक सीधे, सरल और सहज व्यक्तित्व थे। डॉ. कलाम चाहते थे कि उन्होंने अपने गुरुओं या अनुभवों से जो कुछ सीखा, उसका फायदा सबको मिले, खासतौर पर युवाओं को। वे युवाओं तथा बच्चों को अपने अनुभवों और विचारों से प्रेरित करना चाहते थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘विंग्स ऑफ़ फायर’ तथा संस्मरणों ‘माय जर्नी’ को मुख्य रूप से इसी मकसद से कलमबद्ध किया था। इसके अलावा भी उन्होंने अपने विचारों तथा देश के लिए अपने ‘विज़न’ को युवाओं के सामने रखने के लिए अनेक पुस्तकें लिखीं। वैज्ञानिक विषयों पर लिखी उनकी पुस्तकें भी अपनी सरलता, रोचकता तथा तथ्यों के लिए लोकप्रिय हुई। डॉ. कलाम ने समय-समय पर सामाजिक सरोकरों तथा जनमानस तक विज्ञान संचार के लिए देश के छोटे-बड़े तमाम समाचार पत्रों में लेख लिखे। वे पत्रकारों को इंटरव्यू देने के विषय में भी बहुत उदार थे। अपनी बातचीत में वे बिना किसी लाग-लपेट के बेबाकी के साथ अपने विचारों को रखते थे। समाचार पत्रों और T.V. पर दिए गए उनके अनेक इंटरव्यू बेहद लोकप्रिय हुए।

डॉ. कलाम अपने मन की बात को बताने के लिए अक्सर कविताओं और गीतों का सहारा भी लेते थे। अंग्रेजी के अलावा उन्होंने अनेक कविताएं अपनी मातृभाषा तमिल में भी लिखीं। नये जमाने के साथ चलते हुए उन्होंने अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया का भी भरपूर उपयोग किया। डॉ. कलाम की वेबसाइट खासतौर से युवाओं के लिए जानकारियों और प्रेरणा का स्रोत थी।

डॉ. कलाम (Biography)
डॉ. कलाम

बात संचार की चल रही है तो ये जानना जरूरी है कि विज्ञान की दुनिया में डॉ. कलाम को एक बेहद कुशल और प्रभावी विज्ञान संचारक के रूप में ख्याति प्राप्त थी। इस सन्दर्भ में उनका एक लेख याद आता है, जिसमें उन्होंने न्युट्रीनो के विषय में फैली आम शंकाओं को दूर किया था। दरअसल उस समय तमिलनाडु में एक भूमिगत प्रयोगशाला बनाकर प्रकृति के इस महत्वपूर्ण मूल कण पर शोध करने की योजना थी, जिसका समाज के एक वर्ग द्वारा विरोध किया जा रहा था। कुछ लोग कहते थे कि न्यूट्रिनो से कैंसर हो सकता है जबकि कुछ लोग इसे न्यूट्रॉन बम के साथ जोड़ रहे थे। डॉ. कलाम ने वैज्ञानिक तथ्यों के साथ बताया कि न्यूट्रिनो कभी भी कैंसर उत्पन्न नहीं कर सकते और इनका न्युट्रोन से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने बताया कि न्युट्रोन की तुलना में न्यूट्रिनो 17 अरब गुना हल्का है, इसलिए दोनों की तुलना नहीं की जा सकती। इसके साथ ही उन्होंने यह भी समझाया कि न्यूट्रिनो पर शोध हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास को गति दे सकता है। न्यूट्रिनो के उपयोग से संचार प्रणाली की गति बहुत तेज हो सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि भारत इस समय न्युट्रीनो पर शोध के रास्ते से हट जायेगा तो वैज्ञानिक विकास की दौड़ में पीछे रह जायेगा।

डॉ. कलाम के भाषण भी उतने ही रोचक हुआ करते थे जितनी उनकी लेखनी थी। अपने एक प्रसिद्ध भाषण में उन्होंने मीडिया सहित सभी देशवासियों को देश और इसके विकास के प्रति पूरा समर्पण दिखाने का आह्वान किया और अपने अंदाज में काफी हद तक लताड़ा भी। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों की तारीफ करने की बजाय हमें भी भारत को अमेरिका और पश्चिमी देशों जैसा बनाने का प्रयास करना चाहिए। उनका दृढ़ विश्वास था कि किसी भी देश का विकास और निर्माण उस देश के नागरिकों के ऊपर निर्भर करता है, इसलिए उन्होंने देश में प्रबुद्ध नागरिकों के विकास पर जोर दिया और इस विचार को एक अभियान के रूप में प्रसारित किया। उन्होंने इस विचार में तीन आयामों पर बल देने को कहा। पहला तो यह कि हमारी शिक्षा प्रणाली में संस्कारों का समावेश भी होना चाहिए, दूसरा आर्थिक समृद्धि आवश्यक है और तीसरा यह कि धर्म को एक आध्यात्मिक बल के रूप में कार्य करना चाहिए।

उनका मानना था कि प्रबुद्ध नागरिकों की आवश्यकता केवल अपने देश में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में है। इसलिए वह अपने विचारों को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करते रहे। डॉ. कलाम ने अपने इस विचार को 23 राष्ट्रों वाली यूरोपियन पार्लियामेंट, 53 राष्ट्रों वाली पैन-अफ्रीकन पार्लियामेंट और कोरियन पार्लियामेंट के सामने रखा, जिसे भारी समर्थन और सराहना मिली। भारतीय संसद के सामने उन्होंने ‘इंडिया विज़न 2020’ प्रस्तुत किया और बताया कि यदि संसद इस ‘विज़न’ को स्वीकार करे और आगे बढ़ाये तो सन 2020 में आर्थिक रूप से समृद्ध भारत का सपना साकार हो सकता है। उनका मानना था कि जिस राष्ट्र के पास अपने विकास के लिए कोई ‘विज़न’ नहीं होता, वह समाप्त हो जाता है।

भारत के लिए वर्ष 2020 के ‘विज़न’ की बात उस समय प्रारम्भ हुई, जब डॉ. कलाम प्रौद्योगिकी सूचना, पूर्वानुमान एवं मूल्याङ्कन परिषद् (टाइफैक) के अध्यक्ष थे। एक बैठक में निर्णय लिया गया की टाइफैक को एक योजना तैयार करनी चाहिए कि किस तरह भारत को सन 2020 तक आर्थिक रूप से विकसित देश में बदला जा सकता है। बैठक में अधिकांश सदस्यों को यह विचार व्यावहारिक नहीं लगा, क्योंकि इतने लम्बे समय के लिए कोई योजना बनाना मुश्किल था।

Dr. A.P.J. Abdul Kalam
Kalam’s Vision

यह बात है सन 1991 की जब भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था और इसका प्रभाव देश की आर्थिक दशा पर महसूस किया जाने लगा था। परिषद् के युवा सदस्यों को यह विचार नया और क्रांतिकारी लगा और पुरे एक दिन इस विषय पर जमकर चर्चा हुई। बैठक में तय हुआ कि ऐसा विज़न बनाना मुमकिन है। डॉ. कलाम की अध्यक्षता में 17 टास्क टीम बनाई गयीं, जिनमें 500 से अभिक सदस्य थे। इन टीमों ने देश के विशाल अर्थतंत्र के विभिन्न क्षेत्रों के 5000 से अधिक विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श किया। दो साल तक गहन मंथन के बाद 25 रिपोर्ट तैयार की गई जिन्हे डॉ. कलाम ने 2 अगस्त, 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री को सौंप दिया। बाद में डॉ. कलाम ने इसे एक पुस्तक का रूप भी दिया, जो ‘इंडिया 2020 : ए विज़न फॉर द न्यू मिलेनियम’ के शीर्षक से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में प्रकाशित आर्थिक विकास की रूपरेखा को भारत समेत पूरे विश्व में सराहा गया। भारत सरकार ने भी इसे अपना विज़न मानते हुए जारी किया। यह एक दुर्लभ अवसर था, क्योंकि हमारे देश में सरकारों का गठन केवल पांच वर्ष के लिए होता है और अक्सर सरकारें इतने लम्बे समय के लिए योजना बनाने में कतराती हैं।

डॉ. कलाम जब भी देश के विकास की बात करते थे तो इसमें गांवों के पिछड़ेपन की चिंता जरूर मौजूद रहती थी। वह चाहते थे कि विकास का लाभ केवल शहरों और शहरी आबादी तक सीमित न रहे, बल्कि गांव-गांव तक पहुंचे।  इसलिए राष्ट्रपति बनने पर उन्होंने ‘प्रोवाइडिंग अर्बन एमिनिटीज इन रूरल एरियाज (पुरा)’ नामक विचार सरकार के सामने रखा और इसे एक अभियान के रूप में शुरू किया। उनका मानना था कि ग्रामीण क्षेत्रों में चार प्रकार के संपर्क (कनेक्टिविटी) अवश्य होने चाहिए- भौतिक, इलेक्ट्रॉनिक तथा ज्ञान सम्पर्क जिससे आर्थिक संपर्क जिससे आर्थिक सम्पर्क का विकास हो। उनकी संकल्पना थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में ‘पुरा काम्प्लेक्स’ स्थापित किया जाये, जो कार्य के सम्बन्ध में निकट के विश्वविद्यालय से जुड़ा हो और प्रत्येक ‘पुरा काम्प्लेक्स’ द्वारा गांवों के समूहों को जोड़ा जाये। देश के लगभग छह लाख गांवों के समूहों को जोड़ा जाये।

देश के लगभग छह लाख गांवों के लिए उन्होंने सात हजार ‘पुरा काम्प्लेक्स’ की संकल्पना की थी। ‘पुरा’ से जुड़े गांवों में साफ पानी की सप्लाई और साफ-सफाई की बेहतर व्यवस्था की संकल्पना के साथ यह निश्चित किया जाना था कि वहां पोलियो, तपेदिक, मलेरिया और पानी से होने वाले अन्य रोगों का प्रकोप न हो। गावों में सौ प्रतिशत साक्षरता के साथ स्कूलों में कंप्यूटर से जुडी सभी प्रकार की शिक्षा उपलब्ध हो तथा छात्रों को बढ़ईगीरी, दस्तकारी जैसे कामों का प्रशिक्षण भी दिया जाये।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को आधुनिक सुविधाओं से युक्त करने का प्रावधान किया जाए, जिससे पूरे क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवा बेहतर हो सके। कृषि के क्षेत्र में फसलों से सम्बंधित उद्योगों को लगाने की पहल करना तथा बागवानी को बढ़ावा देना प्रमुख कार्य के रूप में चुने गये थे, जिससे ग्रामीण आबादी की आमदनी में सुधार हो सके। कुल मिलाकर उद्देश्ये यह था कि ‘पुरा’ गावों में प्रति व्यक्ति आमदनी में लगभग तीन गुने की वृद्धि हो और गरीबी से नीचे गुजर करने वालों की संख्या छ: वर्ष में घटकर शून्य हो जाये।

डॉ. कलाम के आह्वान पर कुछ स्वैच्छिक संगठनों ने ‘पुरा काम्प्लेक्स’ का काम शुरू किया और उनसे सराहना तथा प्रशंसा भी हासिल की। भारत सरकार ने सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की साझेदारी से यह काम शुरू किया और इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। आशा है डॉ. कलाम का यह सपना एक दिन जरूर पूरा होगा। डॉ. कलाम ने ‘पुरा’ सम्बंधित अपने विचार को ऐसे अनेक देशों में प्रसारित किया जहां गांवों और शहरों के बीच खाई मौजूद थी।

डॉ. कलाम चाहते थे कि राष्ट्र विकास ‘पुरा’ के जैसे कार्येक्रमों में युवाओं की दिलचस्पी हो और वे अपनी इच्छा से इस प्रकार के कार्यों में भागीदारी करें। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इसी उद्देश्य से युवाओं से मिलकर, बातचीत करके उन्हें प्रेरित करने का बीड़ा उठाया। वह हर महीने विभिन्न कार्येक्रमों के जरिये 80 हजार से एक लाख युवाओं से मिला करते थे। उन्हें जहाँ भी व्याख्यान, उद्घाटन आदि के लिए बुलाया जाता, वे आयोजकों से युवाओं के समूह को बुलाने का आग्रह करते और उनसे बातचीत करते। उनकी कोशिश रहती थी कि वे युवाओं के मन की बात को समझ सकें और उन्हें सही राह दिखा सकें। वे चाहते थे कि देश के युवा सपने देखें और उन्हें साकार करने के लिए तन-मन से जुट जायें। उन्होंने अपनी संस्मरण पुस्तक ‘माई जर्नी : ट्रांसफॉर्मिंग ड्रीम्स इंटू एक्शन’ को देश के एक करोड़ 60 लाख युवाओं को समर्पित किया, जिनसे उन्होंने पिछले दो दशकों में मुलाकात की थी और बातचीत की थी।

रामेश्वरम के मछुआरे का बेटा अपनी मेधा के दम पर पहले DRDO का प्रमुख और फिर सात वर्ष तक देश का वैज्ञानिक सलाहकार। कलाम 1999 में अपनी सरकारी जम्मेदारियों से रिटायरमेंट लेकर, अपने फेवरेट काम अध्यापन की तरफ लौट आये थे। 2002 जून, में वो हमेशा की तरह अन्नामलाई यूनिवर्सिटी में अपना लेक्चर ले रहे थे। लेक्चर क्या होता था एक जलशा सा होता था। 60 स्टूडेंट्स के बैठने की जगह में 350 छात्र मौजूद रहते थे। तभी प्रिंसिपल ऑफिस में फ़ोन आया और उन्हें जानकारी दी गयी कि देश उन्हें राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहता है। अटल बिहारी वाजपेयी के साथ हुई उनकी बातचीत के मुख्य अंश डॉ. कलम की जुबानी में :-

मुझसे अटल बिहारी ने पूछा, कलाम साहब, कैसा चल रहा है पढाई लिखाई का काम? मैं बोला, बहुत अच्छा, इसके बाद प्रधानमंत्री बोले, हमारे पास आपके लिए एक अहम् सन्देश है। मैं अभी-अभी गठबंधन में शामिल दलों के नेताओं की बैठक से लौटा हूँ। हमने सर्वसम्मति से फैसला किया है कि देश को राष्ट्रपति के रूप में आपकी जरुरत है, मुझे आज रात ही इसका ऐलान करना है। मुझे आपकी सहमति चाहिए, देखिये मुझे आपसे सिर्फ हाँ सुनना है, न मत कहिएगा।

कलाम ने इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए दो घंटे का समय मांगा और फिर हामी भर दी ।

उन्होंने कहा था कि युवाओं के मन में सपने होते हैं और एक पीड़ा भी होती है, वे एक समृद्ध, खुशहाल और शान्त भारत में रहना चाहते हैं। उनका मानना था कि युवाओं को प्रेरित करके विकसित भारत का सपना साकार किया जा सकता है। इसीलिए वे अध्यापन को सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय मानते थे।

उनका मानना था कि अध्यापन के माध्यम से किसी एक व्यक्ति के चरित्र, योग्यता और भविष्य को संवारा जा सकता है। युवाओं को प्रेरित करने का उनका एक अलग अंदाज था। वे उनसे सवाल पूछकर उनके मन को कुरेदते थे, उनसे राष्ट्र के प्रति समर्पण का आश्वासन लेते थे, उन्हें ‘होम वर्क’ देते थे और कई बार तो शपथ भी दिलवाते थे।

वर्ष 2015 मई में उन्होंने बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची में दीक्षांत भाषण दिया, जिसमें कृषि के अनेक ज्वलंत मुद्दों पर बात की और अंत में छात्रों के बीच कुछ सवाल छोड़ गए – क्या आपको दूसरी हरित क्रांति के लिए याद किया जाएगा, जिससे प्रति हेक्टेयर उत्पादकता दोगुनी हो गयी? क्या आपको ऐसे नये बीजों के विकास के लिए याद किया जायेगा जिन पर मौसम के हेर-फेर का असर न हो? क्या आपको पोधों और शैवाल से प्राप्त होने वाले जैव ईंधन के लिए याद किया जायेगा, जिससे जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में रोक लग जाये? ऐसे अनेक सवालों के माध्यम से डॉ. कलाम ने छात्रों को प्रेरित करने के साथ ही कृषि के क्षेत्र में सार्थक रूप से आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया।

सन 1912 में डॉ. कलाम ने भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद की स्थापना दिवस समारोह को संबोधित किया था और उसमें देश के लिए जरूरी कृषि अभियानों के बारे में बताया था। उस समय भी उन्होंने युवाओं को कृषि से जुड़ने का आह्वान किया था। भारतीय विज्ञान कांग्रेस के साथ आयोजित की जाने वाली राष्ट्रीय बाल विज्ञान कांग्रेस के आयोजक उद्घाटन के लिए हमेशा डॉ. कलाम को निमंत्रित करते थे।

बर्ष 2013 में शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) के अवसर पर डॉ. कलाम ने कहा था कि यदि मेरे बाद लोग मुझे एक अच्छे अध्यापक के रूप में याद करें तो यह मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान होगा। उन्होंने कई बार जीवन पर्यन्त अध्यापन करने की इस्छा जताई थी। संयोग देखिए कि वह अपनी अंतिम सांस तक अध्यापन में संलग्न रहे। जब उनकी अंतिम घड़ी आई तो वह आईआईएम, शिलांग के छात्रों को संबोधित कर रहे थे।

डॉ. कलाम हम इस लेख के माध्यम से और पुरे देशवासियों की और से आपको विश्वास दिलाते हैं कि आप सदैव एक अच्छे अध्यापक के रूप में याद किये जायेंगे। देश में जब भी शिक्षा और शिक्षण की बात होगी तो डॉ. अब्दुल कलाम बहुत याद आयेंगे।


सादर प्रणाम!

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