हरित क्रांति

भारत में साठ के दशक में हरित क्रांति का नारा गूंजा और तब इसका उद्देश्य भुखमरी से निजात दिलाना था। 1967 से 1978 तक चले इस अभियान ने भारत को भुखमरी से न केवल निजात दिलाई बल्कि खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर कर दिया।

साठ के दशक के उत्तरार्ध में पंजाब में हरित क्रांति ने चमत्कारी परिणाम दिखाए। ख़ासतौर से 1969 में जब गेहूँ का उत्पादन 1965 की तुलना में क़रीब 50 प्रतिशत बढ़ा। भारत के लिए ये निहायत ही अचरजभरे और चौंका देने वाले परिणाम थे।

हरित क्रांति को यथार्थ में बदलने के लिए जीन संशोधित बीज और रासायनिक उर्वरकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

सन् 1965 में भारत के कृषि मंत्री थे सी सुब्रमण्यम। उन्होंने गेंहू की नई क़िस्म के 18 हज़ार टन बीज आयात किए, कृषि क्षेत्र में ज़रूरी सुधार लागू किए, कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से किसानों को जानकारी उपलब्ध कराई, सिंचाई के लिए नहरें बनवाईं और कुंए खुदवाए, किसानों को दामों की गारंटी दी और अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम बनवाए।

देखते ही देखते भारत अपनी ज़रूरत से ज़्यादा अनाज पैदा करने लगा।

हालांकि नॉरमन बोरलॉग हरित क्रांति के प्रवर्तक माने जाते हैं लेकिन भारत में हरित क्रांति लाने का श्रेय सी सुब्रमण्यम को जाता है।

एम एस स्वामीनाथन एक जाने माने वनस्पति विज्ञानी थे और उन्होंने भारत में हरित क्रांति लाने में सी सुब्रमण्यम के साथ अहम भूमिका निभाई थी।


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